भाजपा इस समय पंजाब में एक बड़ी दुविधा में फँसी है। क्या है यह दुविधा?
– अंशुल शर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल अप्रैल में पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के अंतिम दर्शन के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे। उन्होंने एक आर्टिकल के जरिये भी प्रकाश सिंह बादल के लिए एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि समर्पित की थी।
इसके कुछ ही दिनों के बाद, पठानकोट से विधायक और पंजाब भाजपा के पूर्व प्रधान अश्वनी शर्मा का बयान आता है कि भाजपा किसी भी कीमत पर अकाली दल से गठबंधन नहीं करेगी। मई 2023 में कैबिनेट मंत्री, हरदीप सिंह पुरी और भाजपा पंजाब प्रभारी विजय रुपाणी ने भी अश्वनी शर्मा के बयान से सहमति जताई ।
वहीं दूसरी ओर राजनाथ सिंह से जब भाजपा- अकाली गठबंधन के बारे में पूछा गया तो राजनाथ सिंह ने कहा, “मुझे नहीं पता कि शिरोमणि अकाली दल ने NDA क्यों छोड़ा, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि अगर कोई एनडीए छोड़ता भी है, तब भी हम उनसे प्यार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। ”
इसके बाद हाल ही में कांग्रेस से आये, और अब पंजाब भाजपा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष सुनील जाखड़ का बयान आता है, “इस तथ्य के बारे में बहुत कुछ कहा गया है कि हम (बीजेपी) अकालियों के साथ गठबंधन के दौरान 23 (विधानसभा सीट) और तीन (लोकसभा सीट) पर चुनाव लड़ते थे. लेकिन काफी समय हो गया है. वह समझौता 1996-97 में हुआ था.” इसके बाद वह कहते हैं की,” …आइए हम इस मानसिकता को छोड़ें कि हम एक ‘जूनियर पार्टनर’ हैं…हमें इस ‘छोटा भाई वाली मानसिकता’ को खत्म करना होगा.’
यही है पंजाब में भाजपा के सामने सबसे बड़ी दुविधा कि अकाली दल से गठबंधन किया जाए या नहीं। पहला विकल्प है, उस गठबंधन पर वापस लौटना, जिसने पार्टी को 25 वर्षों (1996-2020) में से 15 वर्षों तक पंजाब की सत्ता पर बनाए रखा। दूसरा विकल्प है धैर्य के साथ राज्य की राजनीति में एक स्वतंत्र पहचान बनाना । पंजाब में लंबे समय तक भाजपा को अकाली दल के कनिष्ठ भागीदार के रूप में ही देखा जाता रहा है।
2002 के विधानसभा चुनाव से गठबंधन में सीट बंटवारे का फॉर्मूला भाजपा के लिए 23 और अकाली दल के लिए 94 सीटों का रहा है। लोकसभा चुनाव में, गठबंधन की शुरुआत से ही भाजपा ने तीन सीटों अमृतसर, गुरदासपुर और होशियारपुर पर चुनाव लड़ा है, जबकि अकाली दल ने शेष 10 सीटों पर। इस दिलचस्प सीट व्यवस्था का कारण सरल था। जिन सीटों पर भाजपा ने चुनाव लड़ा उनमें हिंदू मतदाता अच्छी संख्या में थे। दिलचस्प बात यह है कि अकाली दल जिसने अपनी राजनीति हमेशा सिख मुद्दों पर की है, उसे राज्य के 55%-60% सिख मतदाता एक होकर वोट नहीं देते। ऐसा क्यों?
जट सिखों के लिए अकाली दल की अनुचित प्राथमिकता ने खत्री सिख और अनुसूचित जाति के सिख समुदायों के एक अच्छे अनुपात को पार्टी से हमेशा दूर रखा है। इसके अलावा, कांग्रेस की भी राज्य में जट सिख समुदाय पर अच्छी पकड़ रही है । यही कारण है कि 1966 में पंजाब के सिख बहुल हो जाने के बाद भी शिरोमणि अकाली दल अपने दम पर केवल दो बार ही बहुमत हासिल कर सका है – 1985 और 1997। 1985 में सिख विरोधी दंगे बहुमत का प्रमुख कारण था।
1997 में पंजाब आंतकवाद के साये से बाहर निकल रहा था,और अकाली दल को समझ आ चुका था की यदि उसे लंबे समय तक सत्ता का सुख भोगना है तो उसे पंथिक राजनीति के इतर सोचना होगा। इसी के चलते 1996 में अकाली दल ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और 1997 में बहुमत आने के बावजूद भाजपा के साथ मिलकर ही सरकार बनाई। राजनीतिक तौर पर यह फैसला सही रहा। 1997 से 2017 तक 20 सालों में अकाली- भाजपा का गठबंधन 15 वर्ष तक सत्ता में रहा। अकाली दल ने इस गठबंधन में वरिष्ठ भागीदार की भूमिका निभाई।
दूसरी ओर, भाजपा ने, जिसे एक ऐसी पार्टी के रूप में जाना जाता है जो हमेशा अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर रहती है ,पंजाब में सत्ता में रहने के प्रलोभन के आगे झुक गई और कनिष्ठ भागीदार के रूप में अपने भाग्य को स्वीकार कर लिया। भाजपा ने बिना कुछ आनाकानी किये अकाली दल द्वारा स्थापित आख्यानों को अपनाया और बहुत से मौकों पर अपने हिंदुत्व एजेंडे के साथ भी समझौता किया। इससे गठबंधन को सत्ता में बने रहने में मदद तो मिली, लेकिन भाजपा ने अपनी पहचान खो दी। उदाहरण के लिए, 2007 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का पंजाब में उसके इतिहास का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन था ।उसने जिन 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 19 पर जीत हासिल की । भाजपा के समर्थन के बिना, अकाली दल के पास सत्ता पाने की कोई संभावना नहीं थी। 2007 में ही भाजपा के वरिष्ठ विधायक मनोरंजन कालिया को , जो डिप्टी सीएम बनने की दौड़ में सबसे आगे थे, इस पद से वंचित कर दिया गया। इसके अलावा, 2007 में ही अकाली दल द्वारा नियंत्रित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने स्वर्ण मंदिर परिसर में जरनैल सिंह भिंडरावाले का चित्र भी सफलतापूर्वक स्थापित किया।
यहाँ पर एक और चीज ध्यान देने योग्य है कि अकाली दल और भाजपा के गठबंधन से अकाली दल का हिंदू वोटरों में आधार बनना शुरू हो चुका था परन्तु भाजपा का जट सिखों में कोई आधार बनता नज़र नहीं रहा था। 2012 के विधान सभा चुनावों में अकाली दल ने 11 हिंदू उम्मीदवार उतारे और उनमे से 10 को जीत मिली।
2007 के बाद से, विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन में लगातार गिरावट आई है, और 2020 के किसान विरोध प्रदर्शन के बाद, ‘भाजपा’ शब्द पंजाब के ग्रामीण इलाकों में लगभग वर्जित ही हो गया था।
विधानसभा चुनाव | जीती गई सीटें/चुनाव लड़ी गई सीटें | वोट शेयर |
2007 | 19/23 | 8.28% |
2012 | 12/23 | 7.18% |
2017 | 3/23 | 5.4% |
2022* | 2/73 | 6.6% |
*2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस (पीएलसी) और शिअद (संयुक्त) के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था. भाजपा ने 73 सीटों पर, पीएलसी ने 28 सीटों पर और शिअद (संयुक्त) ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा।
यह व्यापक रूप से माना जाने लगा था कि किसानों के विरोध प्रदर्शन के बाद, भाजपा ने राज्य में अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो दी है। परंतु, 2022 के विधानसभा चुनावों और हाल ही में संपन्न जालंधर उपचुनावों से यह दिखा दिया कि हिंदू बहुल शहरी क्षेत्रों में भाजपा की अभी भी मजबूत पकड़ है। नीचे उन 23 सीटों पर भाजपा का औसत वोट शेयर दिया गया है, जिन पर पार्टी गठबंधन में चुनाव लड़ा करती थी।
वोट शेयर (2012) | वोट शेयर (2017) | वोट शेयर (2022) |
39.82% | 29.93% | 21.09% |
2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और उसके बाद सिख प्रदर्शनकारियों पर पुलिस गोलीबारी एवं 10 साल की सत्ता विरोधी लहर के कारण अकाली दल की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई, जिसके परिणामस्वरूप 2017 में भाजपा के वोट शेयर पर भी असर पड़ा। परंतु, 2022 में, आप की सुनामी और किसानों के विरोध प्रदर्शन के बावजूद, भाजपा इन 23 सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रही। हाल ही में संपन्न जालंधर उपचुनाव में भी AAP ने 7/9 विधानसभा सीटें जीतीं, और शेष 2 सीटें, जो शहरी प्रभुत्व वाली हैं, भाजपा ने जीतीं। इससे पता चलता है कि राज्य में AAP की जबरदस्त वृद्धि और कांग्रेस की मजबूत स्थिति के बावजूद, भाजपा ने राज्य के हिंदुओं के बीच अपनी मजबूत स्थिति बरकरार रखी है।
2020 में अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद, भाजपा ने सुखदेव सिंह ढींडसा और दिवंगत रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा जैसे पूर्व अकाली दिग्गजों द्वारा गठित अकाली दल (संयुक्त) के साथ गठबंधन कर अकाली दल की कमी को भरने की कोशिश की । परंतु, 2022 के चुनावों में इस गठबंधन का प्रदर्शन खराब रहा। दूसरी ओर अकाली दल को अपने सबसे खराब समय में भी 18.38% वोट शेयर मिला। यह 18.38% वोट शेयर ही है जिसे भाजपा गठबंधन में वापस आकर हासिल करना चाहती है।
अकाली-भाजपा गठबंधन सफल होगा या असफल, इस पर राज्य के मतदाता भी बंटे हुए हैं. ABP और C voters द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 46% उत्तरदाताओं को लगता है कि अकाली दल-भाजपा गठबंधन से दोनों पार्टियों को मदद मिलेगी, जबकि 35% का मानना है कि अकाली दल-भाजपा गठबंधन अप्रभावी रहेगा।
भाजपा के लिए विकल्प सरल है, या तो आजमाए हुए फॉर्मूलों पर भरोसा करे और तत्काल लाभ उठाए या किसी भी तत्काल राजनीतिक लाभ के बारे में सोचे बिना, राज्य में एक स्वतंत्र पहचान बनाने पर काम करे ।
दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर पर्दे के पीछे बातचीत भी चल रही है । साल के अंत में नगर निगम चुनावों के नतीजे बातचीत को निर्णायक रूप दे सकते है। तब तक, आइए प्रतीक्षा करें और इस राजनीतिक खेल का आनंद लें ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
– अंशुल शर्मा